Wednesday, August 19, 2009
Wednesday, August 12, 2009
Monday, August 10, 2009
Sunday, August 9, 2009
आधे अधूरे - मोहन राकेश और मैं।
कभी कभी एक किरदार नजाने कितने किरदार अपने अन्दर समाय रहता है और कभी कभी कितने किरदार किसी एक में किरदार से मेल खाते नजर आतें है।
में अपने आपको महेंद्र नाथ की जुस्तजू कहूं तो सुकून पल भर के लिए भी नही, में अपने आप को जुनेजा कहूं तो दिल में एक चट्पताहत होती है, अपने आपको सिंघानिया कहूं तो मुश्किल सवालों से अपने आप को घिरा पता हूँ...
अपने आपको यादो के समंदर से निकाल बाहार भी फेंकू तो महेश की आद्र व्यथा लहरों में घुली रेत की तरह बदन से चिपक बहार मेरे दरवाजे के अन्दर आ घुसती है। बड़ी लड़की और छोटी लड़की की लाचारी और बेबसी मुझे उस गाये की याद दिला ती है जो शायद हरी घास देख तो पाती है मगर उस तक पहुचना जर्जर समाज रुपी खूटे को नागुजार है। अशोक शायद मेरी ही उम्र का होगा, उसकी तड़प उसके भड़कते रंग की कमीज से और उसकी सामाजिक द्रष्टि शायद उसकी दाड़ी से झलकती है...हँसी आती है मगर अब मेरे बाल पहले से छोटे है और मेरी दाड़ी भी कम है....
शायद अब में अपनी निद्रा दिन के विचारो में बिता देता हूँ, शायद अब निशा और मेरा नाता सर एक चक्र के सामान रह गया है।
सावित्रीतो जैसे मेरे मंथन की एक पहेली की तरह है, एक ऐसी पहेली जो है तो मेरा एक अंग ही मगर उसे में हमेशा विष और अमृत के तराजू में रख देता हूँ।
नजाने यह सब क्यो हुआ, नजाने यह सब कैसे हुआ, नजाने परिणाम और संघर्ष जीवन के दो छोर रुपी शब्द क्यो है?
अन्तर मन की विवाश्ताओ में घिरा, आत्मन की सोच में विलीन, कर्म और धर्म के दुराहे पे नजाने किस पात यह ज़िन्दगी अग्रसर है। रेत है मुट्ठी में थोडी बहुत या बची है आरजू अभी भी, अन्धकार और प्रकाश से लड़ता, पतंगे से में, बढ़ता चला हूँ.......
शायद भागने की जटिलता और रुकने की दशा है...शायद में भी राकेश की कलम की तरह ही आधा अधूरा बचा हूँ....
आधे अधूरे......
Thursday, August 6, 2009
गहन मंथन के भीतर एक प्रकाश की लालिमा, झिल मिल मित्र उसके...कभी सूर्या की भाँती तेज और कभी रात की भाँती गहन.....फ़िर मंथन की दृष्टि और विच्छेद सा संसार, गिरते पड़ते सच और मिलते जुलते झूठ, एक विभाजन काले और सफ़ेद का, एक विभाजन मन और अन्तर मन का।
घूमती धारा और नींद भी चुप चाप बिस्तर के इर्द गिर्द, सलवटें और बिन किताब की जिल्द...
मंथन, एक परीक्षा सत्य और धर्म के बीच, मंथन, एक परीक्षा धर्म और कर्म के भीच, मंथन एक परीक्षा मेरे और तेरे बीच....फ़िर एक पल निकला सूक्ष्म सा, निर्मल और चपल, बहेका सा लेकिन और नाजुक सा...
एक और जलती सोच और एक और ठंडी चादर मैं लिप्त एक विचार, एक और असीमित संसार और एक और सीर्फ़ संघर्ष की ललकार....एक तरफ़ है सूर्य और एक तरफ़ एक अध् जला, अध् भुजा, apane aap se ladta jhagadta diya.
manthan to peeliyaa aur kanth bhi baichain hai....ek vichaar abhi bhi hai yanhi, ek vichaar kabhi gaya nahi tha kanhi......ek vichaar ne li pariksha manthan ki aur ek vichaar hai vijeta uss mook aur badheer manthan ka.....ek vichaar hi hai jeet uss apang parantoo jvalant manthan ka.......
Wednesday, August 5, 2009
विरासत है, सोच है, द्रस्तिकोन है....
माटी का बना माटी मैं और फ़िर शेव्त साँस है॥
है लाल मगर वक्त की सुई और साल है शीश ख्वाब का,
है रक्त रणजीत जिस्म और शांत गीत मल्हार का....
न रोक सका कोई सोच को न आज रोक पायेगा,
रक्त तो बहेगा जो स्वप्न को बचायेगा...
देख आत्मन उड्ड चला न खौफ है न राख़ है,
दो हों या तीन हो हाथ,
एक hi मुँह की खायेगा....
चमक हो jo लाल्हात पे वो सूर्या को तपाएगा,
मौत से bhaybheet है कौन, कौन rah se jayega,
ran bhoomi main ek yoddha fir aaj apna sheesh navayega.....
moodi hawa, moodi tapish ki beech main kaun dekhen aayega,
brahm ke satya ke saamne aaj kaun bachayega...
aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa its pain....oh god damn its pain.........god don't be this way god don't be this damn way.......no no n...............o no no..................i wont go this way...damn i wont....no matter what.......aaaaaaaaaaahhhhhhhhhhhhhhhhgggggggrrrrrrrrrr.........................
Oh damn, optimism, the deception goes on and on the shores of harmony….the tides taking a leap into the soul of the innocent. The unheard and unseen fear creeping inside the dreams of the fellow soldiers and the eyes are moist and stoned. if only this night could hide itself from the darkness, I would have gone beyond the vision and the piercing lights from the horizon. The sight fainting and the pant sleeping down. The light, I must call it the sinner. In me and in the white flashes of the memory. The sinner laughs the devil, and the sanity driven mankind bows down to the thorns. Not just the mankind but the perception looking behind the ruins, uncomfortable and quite…. Oh damn, the lights falling from the ruins walking back to the one. To me and to none……
Tuesday, August 4, 2009
big time i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fooli am a fool i am a fooli am a fool i am a fool i am a fool i am a fool i am a fool.................................................................aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa
why why why why why why why and thouand why....people to me and me to myself.....this is jus not done!!!
Monday, August 3, 2009
ek palda zindagi aur ek hissab yaad aata hai...
zindagi ka bhaar abhi jyada hai aur khwaab bas khwaab,
kabhi mukkaddar ki baaten, kabhi roti ko ladta ek pyaadaa...
oons ka sheesha din ko to chmakta hai par raat ki tithuran bhi hai
ek chain ki kothri, ek purana bistar yaado ka, ek jhoota darwaja aur tangi ki khidkiya...
bas khwaab hi to the vanha, aur kuch sannate shararato ke...
phir zindagi ka palda bhaari...ek palda mere that ek sach zindagi ka hai....
naseeb walo ko hoga saath apne aap ka, lekin pareshaan hai, na jane kyo...
taro ki beech hai doori, sannato ke beech bhi khaamoshi,
parchaiiyan saath nahi magar vo agal bagal hai vanha,
kabhi parchaiyaan saath thi, najane ab bas iss kadar andhera kyo....
rookhi bhook, sookhti pyaas, nam neend aur khaali gilaas,
ek khidki hai yanha lekin baahaar kuch bhi nahi,
kuch darwaaje bhi hai lekin sadke ab vo nahi,
kuch bhi nahi jeeneko aur marne bhi nahi deti ek aas...
tarajoo ka khel aur ek main,
hilte paldo ki justojoo, sach ki hansi,
ab bas chup hoon is najare pe,kabhi najare bolte the aur aaj kuch nahi...na waqt na main...